Monday 28 September 2015

वनपर्व---पाण़्डवों का वृषपर्वा और आर्ष्टिषेण के आश्रमों पर जाना

पाण़्डवों का वृषपर्वा और आर्ष्टिषेण के आश्रमों पर जाना
जटासुर के मारे जाने पर महाराज युधिष्ठिर फिर श्रीनर-नारायण के आश्रम में आकर रहने लगे। इस समय उन्हें अपने भाई अर्जुन का स्मरण हो आया। वे द्रौपदी सहित सब भाइयोंको बुलाकर कहने लगे, "अर्जुन ने मुझसे कहा था कि 'मैं पाँच वर्ष तक स्वर्ग में अस्त्रविद्या सीखने के बाद यहाँ मृत्युलोक में लौट आऊँगा।' इसलिये अर्जुन जब अस्त्रविद्या सीखकर यहाँ आवे, उससमय हमलोगों को उससे मिलने के लिये तैयार रहना चाहिये।" इस प्रकार बातचीत करते हुए उन्होंने आगे के लिये प्रस्थान किया। वे कहीं तो पैदल चलते थे कहीं राक्षसलोग उन्हें कन्धे पर बैठाकर ले चलते। इस प्रकार रास्ते में कैलास-पर्वत, मैनाक पर्वत और गन्धमादन की तलैटी को , श्वेतगिरि को तथा ऊपर-ऊपर के पहाड़ों की अनेकों निर्मल नदियों को देखते हुए वे सातवें दिन हिमालय के पवित्र पृष्ठ पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने राजर्षि वृषपर्वा का पवित्र आश्रम देखा। पाण्डवों ने उस आश्रम में पहुँचकर राजर्षि वृषपर्वा को प्रणाम किया। राजर्षि ने पुत्रों के समान उनका अभिनन्दन किया। पाण्डवों ने वहाँ सात रात निवास किया। आठवें दिन उन्होंने वृषपर्वाजी से आगे जाने की इच्छा प्रकट की। चलते समय वृषपर्वा ने पाण्डवों को पुत्रों की तरह उपदेश दिया। फिर उनकी आज्ञा लेकर वे उत्तर दिशा को चले। रास्ते में पहाड़ों के ऊपर तरह-तरह के वृक्षों की कुँजों में निवास करते हुए उन्होंने चौथे दिन श्वेत पर्वत पर पदार्पण किया। श्वेताचल एक बहुत बड़े बादल के समान सफेद-सफेद दिखाई देता था; इसपर जल की अधिकता थी तथा मणि, सुवर्ण और चाँदी की शिलाएँ थीं। मार्ग में धौम्य, द्रौपदी,पाण्डव और महर्षि लोमश साथ-साथ ही चलते थे। उनमें से कोई भी थकता नहीं था। इस प्रकार चलते-चलते वे माल्यवान पर्वत पर पहुँच गये।  उसके ऊपर चढकर उन्होंने किम्पुरुष, सिद्ध और चारणों से सेवित गन्धमादन के दर्शन किये। उसे देखकर उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया। क्रमशः उन वीरोंने मन और नेत्रों को आनन्दित करनेवाले परम पवित्र गन्धमादन के वन में प्रवेश किया। उस समय महाराज युधिष्ठिर ने भीमसेन से प्रेमपूर्वक कहा, 'अहो ! यह गन्धमादन का जंगल कैसा शोभायमान है। इस मनोहर वन में बड़े दिव्य वृक्ष हैं तथा पत्र, पुष्प और फलों से सुशोभित करह-तरह की लताएँ हैं। इधर, इस परम पवित्र देवनदी गंगा की ओर तो देखो। इसमें अनेकों कलहंस क्रीड़ाकर रहे हैं तथा इसके तट पर अनेक किन्नर और ऋषि लोग निवास करते हैं। हे कुन्तीनन्दन भीम ! तरह-तरह के धातु, नदी, किन्नर, मृग, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा, मनोरम वन, अनेकों आकारों के सर्प और सैकड़ों शिखरों से सुशोभित इस पर्वतराज की ओर जरा दृष्टिपात करो। शूरवीर पाण्डव अपने लक्ष्य-स्थान पर पहुँचकर मन में बड़े ही आनंदित हुए। उस पर्वतराज को देखते-देखते उन्हें तृप्ति नहीं होती थी। फिर उन्होंनें फल-फूलवाले वृक्षों से सुशोभित राजर्षि अर्ष्टिषेण का आश्रम देखा। राजर्षि बड़े ही तपस्वी थे। उनका शरीर अत्यंत कृश था, शरीर की नसें दिखाई देने लगीं थीं और वे समस्त धर्मों के पारगामी थे। पाण्डवों ने उनके पास जाकर यथायोग्य प्रणाम किया। धर्मज्ञ अर्ष्टिषेण ने दिव्यदृष्टि से पाण्डवों को पहचान लिया और उनसे बैठने के लिये कहा। पाण्डवों के बैठ जाने पर महातपा अर्ष्टिषेण ने कौरवों में श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर का सत्कार करके पूछा, 'राजन् ! तम्हारा मन कभी असत्य में तो नहीं जाता, तुम बराबर धर्म में स्थित रते हो न ? अपने माता-पिता, समस्त गुरुजन और विद्वानों का तुम सत्कार करते हो न ? पापकर्मों मे तो कभी तुम्हारा मन नहीं जाता ? तुम उपकार का बदला चुकाना और अपकार को भूल जाना तो अच्छी तरह जानते हो न ? ज्ञान का तुम्हे अभिमान तो नहीं होता ? तुम्हारे व्यवहार से धौम्यजी को तो कभी कष्ट नहीं होता ? तुम राजर्षियों के द्वारा आचरित मार्ग से ही चलते हो न ? जब अपने कुल में संतान का जन्म होता है तो पितृलोक में रहनेवाले पितर हँसते भी हैं और शोक भी मनाते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं कि पता नहीं हमें इस कर्मों से दुःख ही भोगना पड़ेगा या इस कर्मों से सुख भी मिलेगा। जो माता, पिता, अग्नि, गुरु और आत्मा की पूजा करता है, वह इहलोक और परलोक दोनो को ही जीत लेता है। इसपर महाराज युधिष्ठिर ने कहा---भगवन् ! आपने यह धर्म के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है। मैं भी यथाशक्ति अपनी योग्यता के अनुसार इसका विधिवत् पालन करता हूँ। अर्ष्टिषेण ने कहा---पूर्णिमा और प्रतिपदा की सन्धि में इस पर्वत पर केवल जल और पवन का सेवन करनेवाले मुनिगण आकाशमार्ग से आते हैं। उस समय यहाँ भेरी, पणव, शंख और मृदंगों का शब्द भी सुनाई देता है। आपलोगों को यहीं बैठे-बैठे उसे सुनना चाहिये, वहाँ जाने का विचार बिलकुल नहीं करना चाहिये। यहाँ से आगे तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है; क्योंकि अब आगे देवताओं की विहारभूमि है, उसमें मनुष्यों की गति नहीं हो सकती। इस कैलाश को लाँघकर केवल परमसिद्ध और देवर्षिगण ही जा सकते हैं। यदि कोई मनुष्य चपलतावश जाने का प्रयत्न करता है तो उससे समस्त पर्वतीय जीव द्वेष करने लगते हैं और राक्षस लोग उसे लोहे की बर्छियों से मारते हैं। पर्वतसंधियों पर यहाँ सभी प्राणियों को यहाँ ऐसी ही बहुत सी विचित्र बातें दिखाई दिया करती हैं। इसलिये जबतक अर्जुन न आवें, तब तक तुम यहीं निवास करो। मुनिवर की यह हितकर बात सुनकर पाण्डवलोग निरंतर उन्हीं की आज्ञा के अनुसार वर्ताव करने लगे। वे हिमालय पर रहकर महर्षि लोमश से तरह-तरह के उपदेश सुनते रहते थे। इस प्रकार वहाँ रहते हुए उनके वनवास का पाँचवाँ वर्ष बीत गया। घतोत्कच तो राक्षसों के साथ पहले ही चला गया था। जाती वह कह गया था कि आवश्यकता पड़ने पर मैं फिर उपस्थित हो जाऊँगा। इस आश्रम पर पाण्डवलोग कई मास तक रहे और उन्होंने अनेकों अद्भुत घटनाएँ देखीं। एक दिन बहता हुआ वायु ही हिमालयके शिखर से सब प्रकारके सुन्दर और सुगंधित पुष्प उड़ा ले आया। बन्धु-बान्धवों सहित पाण्डवों ने और द्रौपदी ने वहाँ वे फूल देखे।

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